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आयुर्वेद केवल बीमारियों को ही ठीक नही करता, बल्कि गर्भधारण से पहले, गर्भधारण के बाद, गर्भावस्था के दौरान और फिर प्रसव के बाद माताओं के स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए भी इसकी सराहना की जाती है।

गर्भाधान पर आयुर्वेद का दृष्टिकोण 

आयुर्वेद के अनुसार गर्भाधान दिन के बजाय रात में होना चाहिए। आयुर्वेद के अनुसार बाहरी वातावरण का प्रभाव बच्चे के स्वास्थ्य पर पड़ता है। माता-पिता बनने की तैयारी करते समय किसी आयुर्वेदिक डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए। सभी को दिनचार्य का पालन करना चाहिए जिसकी आयुर्वेद ने सलाह दी है; गर्भावस्था की योजना बना रहे जोड़ों को भी ऐसा ही करना चाहिए। जोड़ों को पंचकर्म चिकित्सा भी करवानी की आवश्यकता होती है। यह देखते हुए कि गर्भाशय नौ महीने तक भ्रूण के निवास स्थान या घर के रूप में कार्य करता है, आयुर्वेद चिकित्सक गर्भाशय की शुद्धि के लिए उत्तर बस्ती की सलाह देते है।

आयुर्वेद के अनुसार, एक स्वस्थ गर्भावस्था के लिए आवश्यक है कि मां और पिता दोनों के युग्मक, या बीजा, स्वस्थ रहें। रात के समय चीनी के साथ दूध का सेवन करके आप अपने वीर्य की गुणवत्ता को बढ़ा सकते हैं। आयुर्वेद द्वारा शतावरी सहित ब्रुहनिया (तकद प्रदान करने वाली) जड़ी-बूटियों का सेवन करने की सलाह दी जाती है।

गर्भाधान के बाद और गर्भावस्था के दौरान -

मां के स्वास्थ्य का सीधा असर बच्चे के विकास पर पड़ता है। स्वस्थ आहार का पालन करना महत्वपूर्ण है, आहार कैल्शियम और फोलिक एसिड से भरा होना चहिए। माँ को सभी विटामिन और खनिज प्राप्त होने चाहिए। गर्भावस्था के दौरान मां को दूध और दही का सेवन करना चाहिए। मां को कच्चे फलों की जगह पके फल जैसे अनार, केला और सेब का सेवन करना चाहिए। रात में पर्याप्त आराम करना जरूरी है। माँ को हल्का व्यायाम करना जरूरी होता है। छोटी-छोटी बातों पर तनाव न ले। आयुर्वेद के अनुसार गर्भावस्था के दौरान सेक्स से बचें। गर्भावस्था के दौरान लंबी यात्राएं न करे।

आयुर्वेद के अनुसार, अगर गर्भावस्था के 8वें महीने में बच्चे का जन्म होता है, तो यह मां और बच्चे दोनों के लिए घातक हो सकता है। आयुर्वेद में इसका कारण ओझ को बताया गया है, ओझ इस महीने के दौरान बहुत अस्थिर होता है। गर्भावस्था के इस चरण के में विशेष सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि इस महीने में प्रसव होना खतरनाक है।